इस ब्लॉग में औरंगाबाद(बिहार) से संबंधित वैसे खबरों को पोस्ट किया जाता है, जिसपर वरीय पदाधिकारियों का ध्यान आकर्षित कराना अत्यावश्यक लगे । इसके सेटिंग में मुख्य सचिव (बिहार), पुलिस महानिदेशक (बिहार), जिला पदाधिकारी (औरंगाबाद), पुलिस अधीक्षक (औरंगाबाद) तथा माननीय मुख्यमंत्री (बिहार) का इमेल आईडी फीड किया हुआ है, जिससे ब्लॉग पोस्ट की एक प्रति स्वतः उनके पास पहुँच जाती है । यह बिल्कुल से अखबारों में छपे मूल समाचार होते हैं और मेरा उद्देश्य इन खबरों को वरीय पदाधिकारियों तक पहुँचाना मात्र है ।
Saturday, 19 November 2011
कानून एवं न्याय के सिद्धांत के साथ हो रहा अन्याय
उपेन्द्र कश्यप, दाउदनगर (औरंगाबाद) : नंद किशोर हत्या मामले में हुए आंदोलन के खिलाफ थानाध्यक्ष ओमप्रकाश द्वारा दर्ज कराई गई प्राथमिकी (254/11) कानून एवं न्याय के सिद्धांत के खिलाफ दिखता है। पीड़ित ही नहीं अन्य भी इसे अन्याय मान रहे हैं। प्राथमिकी में दिए गए कई तथ्य प्रथम दृष्टया गलत हैं। आरोपियों की मानें तो अधिकांश नाम उनके हैं जिन्होंने एक व्यक्ति विशेष को पीटा है या तवज्जो नहीं दी है। उसी शख्स के सुझाए गए नाम को आरोपी बना दिया गया है। कई आरोपी ऐसे हैं जो घटना के दिन यहां नहीं थे, या घटना स्थल पर बाद में पहुंचे। पूरी प्राथमिकी पर कई सवाल उठ खड़ा हुआ है जिसका जवाब पुलिस के पास नहीं है। राजनीतिक चिंतक डूवरजर के इस सिंद्धात को बहिष्कृत किया गया है कि शक्ति का प्रयोग निजी हितों के विरुद्ध सार्वजनिक हितों के लिए किया जाना चाहिए। थानाध्यक्ष जाने अनजाने श्रैसीमेक्स के इस सिंद्धात के कट्टर अनुयायी दिखते हैं जिसमें उन्होंने कहा था कि न्याय शाक्तिशाली का हित है। प्राथमिकी में दर्ज है - धर्मेन्द्र, श्रीप्रसाद, मुरारी प्रसाद, बिरजू चौधरी ने 500 बलवाईयों को लेकर लाउडस्पीकर के साथ थाना के लोहे का गेट तोड़कर.. चले आए। सभी के हाथ में डंडा, लोहे की रड, पत्थर था। वस्तुस्थिति विपरीत है। एसपी ने फोटो संग्रह किया है - आंदोलन के प्रांरभ से अंत तक का। न लोहे का गेट टूटा है, न इससे लगी पक्का दीवार है। दस बीस के हाथ भी लाठी या पत्थर नहीं रहा है। यह तस्वीर भी बताएगी कि वास्तव में तस्वीर झूठ नहीं बोलती। लाउडस्पीकर एसपी के आने बाद उनके सम्बोधन के लिए मंगवाया गया था। यह एसपी भी समझ गए होंगे कि उनके आने तक थाना परिसर में लाउडस्पीकर नहीं था। थाना को जला देने की कोशिश के आरोप को भीड़ ने खारिज किया है, और पंखा चूरा लेने का भी। वैसे भी भीड़ बर्बाद करती है घर आबाद करने वास्ते भीड़ तंत्र में शामिल शख्स पंखा चोरी कर ले जाएं, विश्वसनीय नहीं लगता, वह भी तब जब मामला पुलिस के घर का हो, और अन्य वस्तु लूटने की बात संज्ञान में न हो। सवाल तो जनता यह भी पूछ रही है कि राजेश कुमार की प्राथमिकी (248/11) में जान मारने की नियत से हमला करने की धारा 307 नहीं लगाने वाली पुलिस खुद को हल्की चोट लगने पर ही 18 आंदोलनकारियों के खिलाफ तुरंत 307 लगा देती है। राजेश के पिता नंद किशोर की मौत हो गयी जबकि फूफा मुनिलाल अब भी पीएमसीएच पटना में जीवन मौत से जूझ रहे हैं। हालांकि कानूनी पक्ष यह है कि 'नियत' का अहसास होने मात्र पर यह धारा लगाया जा सकता है, भले ही कटा-छंटा, या जख्म हो या नहीं। क्या इस विशेष मामले में पुलिस की 'नियत' न्यायसंगत है? सवाल ढेरों हैं, जवाब मुश्किल है। देखिए पुलिस क्या करती है? कहीं कोशिश यह तो नहीं हो रही कि पुलिस अगर ज्यादती भी करे तो कोई आंदोलन खड़ा न हो। जनता संभवत: इसलिए पुलिस के खिलाफ उग्र होकर भी न्याय की उम्मीद एसपी से लगाए बैठी है।
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